नई दिल्ली। केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को ‘पिंजड़े में बंद तोता’ बताने संबंधी उच्चतम न्यायालय की 2013 की टिप्पणी शुक्रवार को एक बार फिर एजेंसी के लिए उस वक्त परेशानी का सबब बन गई, जब शीर्ष अदालत ने कहा कि जांच एजेंसी के लिए यह ‘‘आवश्यक’’ है कि उसे ‘‘पिंजरे में बंद तोता’’ की धारणा से बाहर निकलना चाहिए। न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा (अब सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की पीठ ने मई 2013 में कोयला घोटाला मामले की सुनवाई करते हुए सीबीआई को ‘‘मालिक की आवाज में बोलने वाला पिंजरे में बंद तोता’’ करार दिया था।
न्यायालय ने आबकारी नीति ‘घोटाले’ के संबंध में सीबीआई द्वारा दर्ज भ्रष्टाचार के एक मामले में शुक्रवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जमानत दे दी। न्यायमूर्ति भुइयां ने एक अलग फैसला लिखते हुए कहा कि कानून के शासन द्वारा संचालित एक क्रियाशील लोकतंत्र में धारणा मायने रखती है और एक जांच एजेंसी को सभी प्रकार के संदेह से परे होना चाहिए।
उन्होंने केजरीवाल को जमानत देते हुए अपने 31 पृष्ठ के फैसले में कहा, ‘‘कुछ वर्ष पहले ही इस अदालत ने सीबीआई की आलोचना करते हुए उसकी तुलना पिंजरे में बंद तोते से की थी। यह जरूरी है कि सीबीआई ‘पिंजरे में बंद तोते की धारणा’ से बाहर निकले। धारणा यह होनी चाहिए कि सीबीआई ‘पिंजरा में बंद तोता’ नहीं, बल्कि स्वतंत्र जांच एजेंसी है।’’
न्यायमूर्ति भुइयां ने कहा कि सीबीआई देश की एक प्रमुख जांच एजेंसी है और यह लोगों के हित में है कि वह न केवल पारदर्शी हो, बल्कि ऐसा (पारदर्शी) प्रतीत भी हो। उन्होंने कहा, ‘‘कानून का शासन हमारे संवैधानिक गणराज्य की एक बुनियादी विशेषता है, जो यह अनिवार्य बनाता है कि जांच निष्पक्ष, पारदर्शी और न्यायसंगत होनी चाहिए। इस अदालत ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि निष्पक्ष जांच भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 और 21 के तहत आरोपी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।’’
न्यायमूर्ति भुइयां ने कहा कि जांच न केवल निष्पक्ष होनी चाहिए, बल्कि निष्पक्ष दिखनी भी चाहिए तथा ऐसी धारणा को दूर करने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए कि जांच निष्पक्ष नहीं हुई तथा गिरफ्तारी दमनात्मक एवं पक्षपातपूर्ण तरीके से की गई।